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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 49 
महामात्यासर्प (गुप्तचर विभाग का प्रमुख) के माथे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं । उनके गुप्तचरों ने दो बार कच का वध कर दिया था । द्वितीय बार तो कच को भेड़ियों को भी खिला दिया था लेकिन शुक्राचार्य ने उसे पुन: जीवित कर उनके समस्त प्रयासों पर पानी फेर दिया था । महामात्यासर्प की चिंता का यही कारण था । उनके सम्मुख भांति भांति के गुप्तचर यथा कापरिक, उदास्थित, गृहपालिक, वैदेहक, तापस, सत्री, तीक्ष्ण, भिक्षुकी और विषकन्या बैठे हुए थे । सभी गुप्तचर भी चिंतित थे । अब क्या किया जाये कि कच पुन: जीवित नहीं हो सके ? सभी गुप्तचरों से मंत्रणा करने के लिए महामात्यासर्प ने एक गुप्त बैठक आहूत की थी । 

गहन मनन के पश्चात कापरिक बोला "कच का वध करके उसका मृत शरीर जला दिया जाये जिससे न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी" । 

कापरिक का सुझाव बहुत अच्छा था , सबको पसंद आ गया परन्तु महामात्यासर्प इस सुझाव से प्रसन्न नहीं हुए । वे कहने लगे "आचार्य तो कच की भस्म से भी उसे पुनर्जीवित कर सकते हैं । यह कोई अकाट्य सुझाव नहीं है । अन्य कोई उपाय बताइये" । 

मंथन का दौर पुन: चलने लगा । भांति भांति के सुझाव पुन: आने लगे । तब एक भिक्षुका बोली "एक कार्य किया जा सकता है मान्यवर ! यदि कच के मृत शरीर को जलाने के पश्चात उसकी भस्म को किसी नदी में प्रवाहित कर दिया जाये । जब भस्म ही नहीं रहेगी तब आचार्य उसे कैसे जीवित कर पायेंगे" ? भिक्षुका ने अकाट्य सुझाव दिया था । यह सुझाव सबको पसंद आ गया । इस सुझाव से महामात्यासर्प का मुख कमल के समान खिल गया था । लेकिन उन्हें कुछ और बेहतर चाहिए था । वे अभी भी मंथन करने में तल्लीन थे । यकायक उन्हें एक युक्ति सूझी और वे प्रसन्नता से उछल पड़े । समस्त गुप्तचर उन्हें आश्चर्य से देखने लगे कि पता नहीं उन्हें क्या मिल गया था ? 

महामात्यासर्प गंभीर मुद्रा में बोले "तुमने बहुत उत्तम सुझाव दिया है भिक्षुका । कच की भस्म को नष्ट करना ही एकमात्र उपाय है जिससे कच पुन: जीवित नहीं हो सके । किन्तु प्रश्न यही है कि उस भस्म को कैसे नष्ट करें ? नदी में बहाना एक अच्छा विकल्प है किन्तु इससे वह भस्म पूर्णतया नष्ट नहीं होगी । वह नदी के तल में अथवा नदी के किनारों पर एकत्रित हो जायेगी और शुक्राचार्य उससे भी कच को जीवित कर सकते हैं । उस भस्म को नष्ट करने का एक ही उपाय ऐसा है जिससे कच के पुनर्जीवित होने की संभावना नगण्य हो जायेगी" । महामात्यासर्प ने रहस्यमई मुस्कान के साथ समस्त गुप्तचरों की ओर देखा।  
"ऐसा कौन सा उपाय है मान्यवर" ? समस्त गुप्तचर एक साथ बोल उठे । 
"यदि कच की भस्म को सुरा में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दिया जाये तो वह भस्म शुक्राचार्य के उदर में चली जाएगी  और फिर कच कभी जीवित नहीं हो पाएगा । यदि शुक्राचार्य कच को जीवित करने का प्रयास करेंगे तो वे स्वयं मृत हो जायेंगे । कोई व्यक्ति स्वयं को मारकर किसी और को जीवित नहीं कर सकता है" । महामात्यासर्प का चेहरा प्रफुल्लित नजर आ रहा था । 

इस योजना से कच का अंत निश्चित था । अब इस योजना को कैसे लागू किया जाये, इस पर मंथन किया जाना था । 
"श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन आचार्य अपने सभी शिष्यों को साथ लेकर वन भ्रमण के लिए जाते हैं । उस दिन कच भी वन भ्रमण हेतु आएगा तब उसका वध करके उसका दहन कर दिया जायेगा । तत्पश्चात उसकी भस्म को सुरा में घोलकर शुक्राचार्य को पिलाकर कच का सदैव के लिए अंत किया जा सकता है" । विषकन्या ने कहा । 

महामात्यासर्प को विषकन्या का सुझाव पसंद आ गया और पूर्णिमा के दिन कच का अंत करने की योजना तैयार हो गई । इसके लिए कापरिक , उदास्थित, वैदेहक, तापस, सत्री , भिक्षुका और विषकन्या को उत्तरदायित्व सौंपा गया । सब लोग अपने अपने दायित्व निर्वहन के लिए योजना निर्मित करने लगे । 

शुक्राचार्य के आश्रम में भी वन भ्रमण के लिए सभी शिष्य तैयारी करने लगे । वन भ्रमण की बात से देवयानी प्रसन्न नहीं थी । वह कच की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी । दो बार कच आश्रम से बाहर गया था और दोनों बार ही उसका वध कर दिया गया था । वन भ्रमण के लिए कच को इस बार भी आश्रम से बाहर जाना होगा । क्या अब भी कच के साथ वही होगा जो पहले हुआ था ? उसने अपनी शंका शुक्राचार्य को बताई तो शुक्राचार्य ने इसकी उपेक्षा करते हुए कहा "सभी शिष्य रहेंगे वहां पर, कच अकेला तो रहेगा नहीं । और यदि कच के साथ कुछ अनहोनी घटना घट भी गई तो मृत संजीवनी विद्या से उसे पहले की भांति जीवित कर दिया जायेगा । इसमें चिंतित होने जैसी क्या बात है" ? 

देवयानी अपने पिता की बात सुनकर चुप हो गई किन्तु उसके मन में समाया हुआ भय कम नहीं हुआ । उसने शुक्राचार्य के सम्मुख एक शर्त रख दी "मैं भी वन भ्रमण के लिए जाऊंगी । मैं कच की सुरक्षा करूंगी" । देवयानी दृढ़तापूर्वक बोली । 
"तुम वहां जाकर क्या करोगी देव, तुम पहले भी कभी नहीं गई हो वन भ्रमण के लिए तो इस बार ही ये हठ क्यों" ? 
"आप नहीं समझेंगे तात् । पहले की बात कुछ और थी और अब की बात कुछ और है । मैं या तो आपके साथ जाऊंगी या फिर मैं कच को भी नहीं जाने दूंगी" ? देवयानी अपने संकल्प पर दृढ रही । शुक्राचार्य ने भी उसकी बात मानकर उसे अपने साथ चलने की आज्ञा दे दी । 

श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन सभी शिष्य वन भ्रमण पर निकल पड़े । देवयानी भी शुक्राचार्य के साथ चलने लगी । शुक्राचार्य ने दोपहर के भोजन की व्यवस्था के लिए एक पृथक दल तैयार कर दिया था जो पहले ही चला गया था । शुक्राचार्य सभी शिष्यों और देवयानी को लेकर सघन वन में आ गये । वहां पर सभी शिष्य प्रकृति के मनोरम दृश्यों का आनंद लेने लगे । कुछ शिष्य नदी में तैरने लगे तो कुछ शिष्य झरने में नहाने का आनंद लेने लगे । 

देवयानी का संपूर्ण ध्यान कच पर ही था । वह क्या कर रहा है ? कहां पर है ? उस पर पूरी निगरानी रख रही थी देवयानी । दैत्यों और गुप्तचरों ने भी कच का वध करने की पूरी तैयारी कर रखी थी । गुप्तचरों ने अनेक दैत्यों को शिष्य बनाकर शिष्यों की टोली में भेज दिया और वे सब दैत्य उन शिष्यों में घुलमिल गये थे । एक गुप्तचर ने कच का वेश धारण किया और वह कच बनकर देवयानी की नजरों के सम्मुख घूमता रहा । शिष्य बने दैत्यों ने कच को मूर्छित कर दिया और वे उसे वहां से घने जंगल में कहीं ले गये । उन्होंने कच का वध कर के उसके शरीर को चिता के सुपुर्द कर दिया । अल्प समय में ही चिता धू धू करके जल उठी और कच का शरीर जलकर भस्म में परिवर्तित हो गया । दैत्यों ने उसकी भस्म को एक सुरा पात्र में डाल दिया और उसे सुरा से भर दिया । अब इस सुरा को शुक्राचार्य को पिलाने का काम शेष रह गया था । 

सभी गुप्तचर शिष्यों के वेष में थे । उन्होंने शुक्राचार्य से सुरापान करने का आग्रह किया जिसे शुक्राचार्य ने स्वीकार कर लिया । गुप्तचरों ने कच की भस्म मिली हुई सुरा शुक्राचार्य को पिला दी । इसके पश्चात सभी गुप्तचर वहां से चले गए और उन्होंने महामात्यासर्प को अपने कृत्य की जानकारी दे दी । महामात्यासर्प उनसे बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें बहुत से पुरस्कार प्रदान किये । 

सांयकाल होने पर सभी शिष्य वापिस आश्रम लौटने की तैयारी करने लगे । कच के वेश में दैत्य को ही कच समझ कर देवयानी उस पर निगाह रखती रही । धीरे धीरे सभी लोग आश्रम लौट आए । देवयानी की निगाह बचाकर कच बना दैत्य चुपके से वहां से चला गया । देवयानी को इसका भान नहीं हुआ । वह अपने पिता के साथ आश्रम आ गई । आश्रम में आकर उसने चारों ओर निगाह घुमाई तो उसे कच कहीं भी नजर नहीं आया । इससे देवयानी फिर से चिंतित हो गई । उसने कच को आश्रम में सब जगह ढूंढ लिया लेकिन उसका कहीं पता नहीं चला । देवयानी आशंकाओं के भंवर में घिर गई । वह विक्षिप्तों की तरह रुदन करने लगी । 

श्री हरि 
17.7.23 

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1 Comments

Abhilasha Deshpande

14-Aug-2023 09:09 AM

Nice part

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